शनिवार, 4 नवंबर 2017

कार्तिक पूर्णिमा 2017 पर पुस्तक व्रत विज्ञान सत्य मिथ पाखंड का प्रथम प्रारूप प्रकाशित

व्रत विज्ञान पुस्तक उद्देश्य
यह किताब हम क्यों पढ़ें

व्रत से सत्य की यात्रा आसान नहीं हैं । ये व्रत लेना अपने हाथ में भी नहीं है । सत्य की तलाश की ओर हर व्यक्ति चलता भी नहीं ऐसे में अहम सवाल है यह पुस्तक आप क्यों पढ़ें ?
मेरे लिये भी यही संकट है । अपने व्रत से जो कुछ मुझे मिला वह आप तक मैं क्यों पहुंचाउं ? इससे मुझे क्या लाभ मिलेगा ?
    
   जो कुछ इस पुस्तक में दर्ज किया गया है वह आपके लिये कितना उपयोगी है ? इसमें कहे गये तथ्य कितने भरोसे के लायक हैं ? क्या आपको इन पर विश्वास करना चाहिये ? इनमें कहे तथ्य, स्वयं पर आजमाने से आपके तन और मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
व्रत के प्रति आस्था क्यों रखें ?

आदि आदि ?

अनेक सवाल हैं ?

???

इन सवालों को मन में उठने दीजिये । अपने अंदर से जवाब खोजिये । जिन सवालों का जवाब नहीं मिले वह हमसे अवश्य पूछिये।

मेरी ओर से यह किताब आप तक पहुंचना एक अनिवार्यता है । यह मेरे ही नहीं अपने पूर्वजों के अस्तित्व, गुरुओं के ज्ञान और उनके तप को आप तक पहुंचाने की विवशता है।

जो कुछ स्वाध्याय से , अपने तन पर प्रयोग से, मन और चित्त के विश्वास, आस्था और समर्पण से प्राप्त हुआ है वह इसी जन्म में विसर्जित किये बिना मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी।
इसलिये मुझे जो कुछ मिला है वह आप तक पहुंचाना है।

ईशोपनिषद के सभी श्लोक महत्वपूर्ण सूत्र हैं । इनमें से कुछ सूत्र जो मुझ तक अपना अर्थ कह रहे हैं वह मुझे चैन से नहीं जीने देगा जब तक मैं इन्हें आप से बांट नहीं लूंगा ।
विद्यां चविद्यां च यस्तद्वेदोभय ऊँ सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ ११॥
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्या ऊं रताः ॥ १२॥
अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात् ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥ १३॥
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभय ऊं सह ।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ॥ १४॥

 मेरे अर्थ आप भी स्वीकार करें और अपने जीवन में उतारें यह आवश्यक नहीं है। इसे वही स्वीकार करेगा जिसे इसकी जरूरत होगी । इसे स्वीकार कर वह प्रतिबद्ध होगा / होगी उन विचारों के लिये कर्ममय जीवन बिताने के लिये  जो सबके लिये मंगलकारी हैं।

आज चार नवंबर 2017 है । आज कार्तिक पूर्णिमा है । आज स्नान और संकल्प के साथ व्रत और उत्सव से जुड़े व्यापक आधार पर मनाये जानेवाले अनेक पर्व हैं।

पर आज की तिथि 
औरंगजेब का जन्म दिवस भी है। औरंगजेब जिसने भारतवर्ष में उसके समय में मनाये जाने वाले अनेक पर्व – त्यौहारों को बदल कर एक समाज, एक समूह में बदलने के लिये अथक प्रयास किये ।

अनेक क्रूर कर्म उसके नाम हैं जिसका पूर्ण फल उसे मिला है ।

भारतीय समाज जैसा कल था । वैसा आज भी है । जितने व्रत त्यौहार और उत्सव उसके समय में थे उनमें कुछ बढ़े ही हैं, घटे नहीं हैं।

औरंगजेब भारत वर्ष के लिये नायक है या खलनायक इसकी विवेचना करते हैं ईशोपनिषद के ऊपर दिये गये सूत्र ।

 विद्या और अविद्या दोनों साथ – साथ हर समय कार्यशील और गतिमान रहते हैं । विद्या और अविद्या की उपासना   के फल अलग - अलग हैं पर जो धीर हैं, समझदार हैं वे दोनों की उपासना करते हुए एक दूसरे के सहयोग से अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं।

विद्या होने पर उसे अपने पास रोके रखना मना होता है। अविद्या के साथ चलना मना होता है। संभूति और असम्भूति की उपासना करने वाले और इसके विरोध में चलने वाले दोनों का अस्तित्व बना रहता है।

धीर और विद्वान को संभूति के साथ चलना चाहिये अन्यथा अंधलोक में स्थान मिलता है। ये जो अंधलोक है उससे मुक्त होकर प्रकाश में चलने का पर्व  है आज ।

आज 4 नवंबर 2017 है । देव दीपावली के साथ अनेक भारतीय व्रत, पर्व और उत्सवों के साथ औरंगजेब की जयंती।

प्रकाश पर्व है आज । सिक्खों के आदि गुरु नानक देव की जयंती।

दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भारतीय संतान की जयंती पर इस किताब के प्रथम प्रारूप को स्वान्तः सुखाय प्रकाशित किया जा रहा है। 

इसमें संशोधन, परिवर्धन, जोड़ – घटाव की प्रक्रिया अगली पूर्णिमा यानि अग्रहायन पूर्णिमा से पहले तक चलेगी । अगहन पूर्णिमा को इस किताब के अंतिम प्रारूप का   प्रकाशन हो जायेगा।

4 नवंबर 1618 में पैदा हुआ औरंगजेब मुग़ल ख़ानदान का आखिरी सबसे प्रकाशमान चिराग था । इस्लाम धर्म में पैदा हुए औरंगजेब ने पूरी इमानदारी, निष्ठा और समर्पण के साथ व्रत किया ।
अपने धर्म के प्रचार और प्रसार के लिये जो कुछ संभव हो सकता है उसने किया। पर अपने व्रत पर टिके रहने, दीन ईमान पर चलने का उसको क्या फल मिला ?

औरंगजेब विदेशी नहीं था । इसी भारत वर्ष में उसके बाप , दादा - परदादा पैदा हुए जिन्होंने यहां के धर्म, यहां के लोगों की आस्था और विश्वास के साथ तालमेल बनाते हुए अपना जीवन –यापन किया।

उसके पिता शाहजहां के शासन काल में सेना के विभिन्न पदों, दरबार के महत्वपूर्ण पदों और प्रशासनिक इकाइयों में हिंदुओं की तादाद 24 फीसदी थी जो औरंगजेब के शासनकाल में बढ़ कर 33 फीसदी पर पहुंच गयी। ( स्रोत हिंदुस्तान दैनिक समाचार पत्र 04-11-17 दूसरा पृष्ठ )

औरंगजेब अपने बाप, दादा और परदादा से अलग व्यक्तित्व वाला था । आजीवन उसने शराब नहीं पी।  ऐयाशी और अश्लील नाच गाने से दूर रहते हुए उसने अनेक प्रशासनिक सुधार किये जिससे आम लोगों का जीवन बेहतर हो। अपने भरण पोषण के लिये टोपियां सिल कर और तथा कुरान की प्रतिलिपियां तैयार कर बेचने से जो आय होती उसी से निर्वाह करता था। 

 ये ऐतिहासिक तथ्य हैं जिनकी पुष्टि अनेक तत्कालीन संदर्भ ग्रंथों से होती हैं ।

 दूसरी ओर औरंगजेब अपने दीन पर चलने वाला एक अंधा व्यक्ति था जिसने अपनी आस्था और विश्वास में बलपूर्वक दूसरों को दीक्षित करने के लिये भयानक अत्याचार किये।

विद्या और अविद्या को समझने वाले, संभूति और असंभूति के साथ चलने वालों को मिलने वाले फल को समझने के लिये बस एक उदाहरण गुरु तेगबहादुर का यहां प्रासंगिक है।

सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर के पास जब अपने धर्म की रक्षा के लिये कश्मीर से चल कर हिन्दुओं का एक दल औरंगजेब का संदेश लेकर आया तो भरे दरबार में सब सोच विचार में पड़ गये।
क्या था औरंगजेब का संदेश ? धर्म के लिये अपने प्राणों की बलि देने वाला कोई है तो सामने आये । धर्म के नाम पर अपनी आहुति दे ।

आत्म उत्सर्ग का विचार नाचिकेत अग्नि से परिचालित एक बालक गोविन्द राय ने अपने पिता सिक्खों के नवम गुरु तेगबहादुर को दिया।

सनातन भारतीय संस्कृति का वाहक ऋषि वाजश्रवा  विश्वजित यज्ञ के बाद उचित दान नहीं देता है तो उसका बेटा पिता को पापकर्म से बचाने के लिये समुचित दान याचकों को देने का आग्रह करता है। पिता फिर भी नहीं  माने तो बार बार अनुरोध करता है । अंततः उसके सवालों से चिढ़कर पिता  अपने  बेटे नचिकेता को मृत्यु को दान कर देता है।

मृत्यु के स्वामी यमराज को प्राप्त कर नचिकेता सत्य को समझता है और सत्य का प्रसार आजीवन करता है। यह व्रत से ही संभव हुआ।

दस वर्ष के गोविन्द राय उसी नाचिकेत अग्नि से परिचालित भारतीय संतान जिन्होंने अपने पिता को आहूति देने की प्रेरणा दी । अपनी संतानों को आहूति पथ पर अग्रसर किया। आजीवन व्रत पथ पर सत्य संधान करते रहे।

औरंगजेब भी भारतीय । यहीं के पंच तत्वों से तन निर्मित हुआ यहीं खाक में मिल गया। आज उसकी जयंती पर उसे याद करना प्रासंगिक । उसे असंभूति की उपासना का फल मिला।

संभूति यानि अपने समान सबको समझना, उसके सुख दुख की चिंता करना और असंभूति यानि अपने से अलग समझ कर दमन करना और उसे बदलने का प्रयास करना, नष्ट करने के लिये अपनी ऊर्जा का प्रयोग करना ।

संभूति और असंभूति की अनेक व्याख्या अनेक ग्रंथों में अलग अलग विद्वानों की मिलेगी और हर विद्वान अपने सत्य पर अटल मिलेगा।

पर 
सत्य एक बिन्दु है 
जिसके उतने ही अंश को कोई भी प्राप्त कर सकता है जितने का वह योग्य अधिकारी पात्र हो । उससे अधिक सत्य उसे नहीं मिलता ।

अक्षर और अक्षरों से बने शब्द, पद वाक्य का अर्थ हम पर आप पर बस उतना ही खुलेगा जितने की हमें आवश्यकता है , जितने के योग्य पात्र और अधिकारी हम हैं । उससे अधिक नहीं।

एक वैदिक मंत्र है
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम ।
उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ।।ऋगवेद 10-71-04

इसका सरल सा अर्थ है हम देख कर और सुन कर भी वाणी का वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते हैं, हम वह समझते हैं जो समझना चाहते हैं जबकि उसका तात्पर्य बिल्कुल अलग हो।
          
समकाल में प्रतिदिन अनेक तथ्य सत्य – असत्य, कहानियां , सच्ची, झूठी, हमारे पास आ रही हैं। हमारा जीवन इनसे प्रभावित हो रहा है। हमारी आंखो पर टेलीविजन से दिखाया जा रहा सत्य और खबरिया माध्यमों से चलकर आया हुआ तथ्य पहुंच रहा है। इन्हीं से हमारा जीवन परिचालित हो रहा है।
     धर्म, आस्था , विश्वास और परंपरा के नाम पर हम तक पहुंचने वाली सूचनाओं का वास्तविक लक्ष्य जाने बिना हम एक उन्मादी समाज के रूप में बदलते जा रहे हैं।

स्वास्थ्य रक्षा के लिये बाजार के पंडित और मायावी गुरु तरह- तरह के स्वांग रच कर हमें लुभा रहे हैं। स्वस्थ और प्रसन्न जीवन का लक्ष्य हर किसी का है। इसी दावे के साथ प्रत्येक उत्पाद आपको परोसे जा रहे हैं ।

शिक्षा का लक्ष्य केवल पेट भरना और मजे लेना रह गया जिसे प्राप्त कर ना तो हम स्वस्थ रह पा रहें हैं और ना जीवन का आनन्द मिल रहा है।

ऐसे में व्रत विज्ञान सत्य मिथ पाखंड आपको उन्मादी बनने से रोक सके इसलिये आपके हाथों में है। आप स्वस्थ रह सकें और अपने पास उपलब्ध संसाधनों से अपने तन को सबल बना सके इसलिये यह किताब आपके पास पहुंच रहा है।

वसंत के समान सुखद हर मौसम आपके लिये हो,  आप हर दिन उत्सव मना सकें इसलिये यह किताब आपके हाथों में है। आप आनंदित रहे हर पल इसलिये यह किताब आप पास है। ,   
  
  व्रत की परंपरा दुनिया के सभी धर्मों मे है । किसी में कम किसी में ज्यादा । धर्म के बिना रहने वाले लोग आज भी दुनिया की कुल आबादी में मात्र पंद्रह प्रतिशत हैं।

पर ये पंद्रह प्रतिशत भी सनातन भारतीय सोच की दृष्टि से धार्मिक हैं जिनका कोई स्पष्ट देवता नहीं है। उपासना की स्पष्ट पद्धति नहीं है पर ये भी व्रत के सिद्धान्तों से ही परिचालित होते हैं । व्रत इन पर भी लागू होता है।

यह किताब आपको हर तरह के अंधविश्वास से मुक्त होने में सहायता करेगी। आपको अपने धर्म में स्थिर रहते हुए अपने विश्वास और परंपरा के साथ चलते हुए अपने तन को स्वस्थ और मन को प्रसन्न रहने में सहायता करेगी।

   स्वामी विवेकानंद ने आज से लगभग सवा सौ साल पहले कहा था महत्वपूर्ण तथा आश्चर्यजनक सत्य मैंने अपने गुरुदेव से सीखा, वह यह कि संसार में जितने धर्म हैं, वे परस्पर – विरोधी या प्रतिरोधी नहीं हैं – वे केवल एक ही चिरन्तन शाश्वत धर्म के विभिन्न भाव हैं  मात्र हैं। ( स्रोत - मेरी जीवन कथा – स्वामी विवेकानंद,  हैं ।  यही एक शाश्वत धर्म चिरकाल से समग्र विश्व का आधार स्वरूप रहा है और चिरकाल तक रहेगा ; और यही धर्म विभिन्न देशों में विभिन्न भावों में अभिव्यक्त हो रहा है।

स्रोत - मेरी जीवन कथा आत्मकथात्मक उक्तियों का संकलन – स्वामी विवेकानंद प्रथम संस्करण 2014 )
    
  मुझे भी अपने  व्रत से यही सत्य प्राप्त हुआ है। इसी का प्रसार करते हुए मनसा वाचा कर्मणा यह पुस्तक आपके हाथों में है।
आनन्द लीजिये ।
इति शुभम
देव दीपावली

4 नवंबर 2017

यह पुस्तक क्यों पढ़ें इस शीर्षक से यह आलेख आज ही लिखा गया है । पुस्तक में अंतिम प्रकाशन के समय सम्मिलित किया जायेगा।


देव दीपावली आपके लिये मंगलमय हो