गुरुवार, 18 अगस्त 2016

Smile mail message : अपने सुंदर तन और चंचल मन की बनावट पहचानिए


मुस्कान मेल पैगाम

पहले मुस्कुराइए फिर आगे पढ़ने के लिए नजरें  दौड़ाइए

यदि आप जीवन में हर पल मुस्काराना चाहते हैं तो अपने तन मन की बनावट पर गौर फरमाइए। जरा अपने रंग रूप, बनावट, गठन और स्वभाव पर ध्यान दीजिए। अपनी पहचान खुद कीजिए। आयुर्वेद के अनुसार गर्भा वस्था में ही हर व्यक्ति की प्राकृतिक बनावट, उसके रंग रूप और प्रकृति का निर्धारण हो जाता है।

वात, पित्त और कफ आयुर्वेदिक ग्रंथों में त्रिदोष कहे जाते है। इन तीनों के सम अवस्था में रहने से शरीर स्वस्थ रहता है। हर व्यक्ति का शरीर आम-तौर पर किसी एक या दो दोषों से प्रभावित होता है। कुछ लोगों में तीन दोषों की समस्या एक साथ हो सकती है। लेकिन यदि व्यक्ति अपनी प्रकृति की पहचान ठीक से कर ले तो प्राकृतिक जीवन शैली अपनाकर अपने दोष का उपचार खुद कर सकता है। यहां दोष का अर्थ गुण से समझना चाहिए। यहां दोष का मतलब किसी बुराई या बीमारी से नहीं है। इन गुणों के आधार पर कोई भी व्यक्ति अपनी पहचान कर सकता है।

अब सवाल उठता है कि पंच तत्वों के साथ इनका समायोजन कैसे करें। पंच तत्व हैं अग्नि, वायु,जल, पृथ्वी और आकाश। इन पांचों में तीन दोष वात - पित्त और कफ को कैसे पहचानें।

    वात शुद्ध वायु है जिसके गुण अलग अलग तरह के हैं और जिसकी गति 49 तरह की मानी जाती है। वायु की इन 49 गतियों को आप भी अनुभव कर सकते हैं। लेकिन ये एक दिन में कर लीजिएगा। ये मत समझिए। अपने तन के साथ प्रयोग कीजिएगा, नियमित प्राणायम कीजिएगा और समझने की कोशिश कीजिएगा तो पकड़ पाइयेगा। ये विश्वास रखिए।

इसी तरह कफ को सीधा जल से जोड़ने की गलती करने की जरूरत नहीं है। कफ मुख्य रूप से जल है अवश्य लेकिन इसमें बाकी चार तत्व भी मिले हैं। किस रूप में किन तत्वों का अनुपात कैसा है उस पर कफ का निर्माण होता है और यह हमारे शरीर में lubricant यानि स्नेह यानि तेल की भूमिका निभाता है।
 पित्त को भी ठीक इसी तरह सीधे अग्नि मत मानिए लेकिन यह मुख्य रूप से अग्नि प्रभावित अवश्य है।

पंच तत्वों में से तीन तो हो गए बाकी बची पृथ्वी तो यह मुख्य आधार है हमारे तन को जो भी ठोस रूप में दिखता है उसे पृथ्वी समझ लीजिए । लेकिन इसका अर्थ यह मत लगाइए कि उसमें अन्य चार तत्व नहीं हैं। जैसे धरती माता के अंदर खोजें तो और बाहर खोजें तो अन्य चारों का हम अनुभव कर सकते हैं ठीक वैसे ही एक बहुत छोटे आकार वाले जीव या विशालकाय जीव या फिर अजीव पृथ्वी के अंश में अन्य चारों तत्व भी हैं।

अब आइए आकाश को लीजिए । आकाश में ही सब कुछ अवस्थित है। और हमारे शरीर के अंदर भी यही आकाश तत्व हर एक दूसरे अंग को व्यवस्थित करने का जिम्मेदार है। जब हम अपने तन की देखभाल ठीक से नहीं करते या किसी अन्य कारण से हमारे तन मन के अंदर आकाश का संतुलन गड़बड़ होता है तो हमें तरह –तरह की शिकायते होने लगती हैं।   

अब हम पांचो मूल तत्वों और तीन दोषों को थोड़ा सा समझ गए तो आगे बढ़ें। 

लेकिन आगे बढ़ने से पहले मुस्कुराइए। क्योंकि ये स्माइल मेल की आवश्यकता है। बिना मुस्कुराए बढ़िएगा तो समझ नहीं पाइएगा।

मुस्कुराए आप। ये हुई ना बात .....

आयुर्वेद के दो प्रमुख ग्रंथों चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में इन्हीं तीन दोषों के आधार पर  व्यक्ति के तन मन की बनावट और प्रकृति पर विचार किया गया है।

इनके आधार पर व्यक्ति की बनावट को  मुख्य रूप से सात तरह का माना गया है। वैसे ये सात ही तरह के नहीं और भी अनेक प्रकार के हो सकते हैं। हमने अपनी सुविधा के लिए इन्हें सात में सीमित किया ताकि आप अपने लक्ष्णों को पहचान कर आसानी से जान सकें कि इन सात में से किस प्रकृति के हैं आप ।

     1.  वातिक प्रकृति     2. पैत्तिक प्रकृति
     3. कफज प्रकृति       4. त्रिदोषज प्रकृति
     5. पित्त वातज प्रकृति  6. वात कफज प्रकृति
7. कफ पैत्तिक प्रकृति

1.      वातिक प्रकृतिः
 वातिक प्रकृति के लोग आम-तौर पर वायु विकार से अधिक ग्रस्त होते हैं। इन्हें ठंड अधिक लगती है और सर्दी बर्दाश्त नहीं होती। शरीर की नसें / शिराएं उभरी हुई होती हैं। हाथ-पैर फटने की शिकायत रहती है। चंचल आंखें, अस्थिर बुद्धि, दुबला-पतला शरीर, तेज चलना, और जल्दी-जल्दी बोलना इनका स्वभाव होता है। नाखून, दाढ़ी और बाल रूखे होते हैं। गाना सुनना और खुद गाना अच्छा लगता है, क्रोध अधिक आता है। क्रोध आने पर बिना सोचे विचारे लड़ाई / हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।

यदि आप वातिक प्रकृति के है तो चिंता न करें किसी योग्य आयुर्वैदिक डाक्टर से सलाह करें।  एक सरल उपाय अभी आजमा सकते हैं। अपने अंगूठे और अंगूठे के साथ वाली उंगली यानी तर्जनी के उपरी छोर को एक साथ मिलाकर रखें। यह अपने शरीर में वायु को नियंत्रित रखने का सबसे अच्छा उपाय है। यह ज्ञान मुद्रा कहलाती है

2.   पैत्तिक प्रकृतिः

पैत्तकि प्रकृति के लोग आमतौर पर पित्त की अधिकता से ग्रस्त होते हैं। शरीर से दुर्गंध आना, अधिक पसीने आना, अधिक भोजन करना, गोल-मटोल होना, मुंह की बीमारियों से परेशान रहना (मसलन मुंह में छाले आना, दांत/मसूड़ों में तकलीफ आदि), आंख, जीभ, होंठ, तालू, नाखून, हथेली और तलवा तांबई रंग से यानी तांबे के समान रंग से प्रभावित होना इनके समान्य लक्ष्ण हैं। इन्हें गर्मी बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होती यह बड़ी जल्दी नाराज़ और खुश हो जाते हैं। यह बड़े तेजस्वी, प्रभावशाली वक्ता और अपनी बात मनवाने वाले लोग होते हैं।

3.   कफज प्रकृतिः

कफज प्रकृति के लोग कफ विकार से अधिक ग्रस्त होते हैं। इनके शरीर में कफ का निर्माण अधिक होता है। जिसपर नियंत्रण रखने की जरूरत होती है। कफ से प्रभावित लोगों का शरीर आम-तौर पर सुंदर सुडौल मध्यम आकार का होता है। यह सामान्यतया नीरोग , कृतज्ञ और सहनशील होते हैं। मगर किसी से दुश्मनी हो जाए तो अंत तक संघर्ष करते हैं।

4.   त्रिदोषज प्रकृतिः

पित्त, वायु और कफ तीनों की अधिकता वाले लोग त्रिदोषज प्रकृति वाले कहे जाते हैं। इन्हें अपना ध्यान अधिक रखने की आवश्यकता होती है।

5.   पित्त वातज प्रकृतिः

वात और पित्त की अधिकता वाले लोग इस श्रेणी में आते हैं।

6.   वात कफज प्रकृतिः

कफ और वात की अधिकता वाले लोग इस श्रेणी में आते हैं।

7.   कफ पैत्तिक प्रकृतिः

जब कफ और पित्त दोनों की अधिकता हो तो ऐसे व्यक्ति इस श्रेणी में रखे जाते है।

    जिस तरह व्यक्ति की प्रकृति होती है उसी तरह हर अन्य जीव और जीवित पद्धार्थ की भी प्रकृति होती है हम आहार रूप में जिस फल, सब्जी या अनाज का उपयोग करते हैं इनकी भी अपनी प्रकृति होती है। आयुर्वेद में आहार की प्रकृति का भी निर्धारण किया जाता है। और प्रकृति के अनुसार आहार चिकित्सा और वनस्पतियों के माध्यम से इलाज करने की परंपरा है।

     मान ले  यदि हम में से  कोई व्यक्ति कफज प्रकृति का है यानी कफ से प्रभावित है तो ऐसे में उसके आहार में कफ बढा़ने वाले खाद्य पद्धार्थ मसलन अरबी, भिंडी, राजमा, दही की मात्रा बढा़ दी जाए या वह जाने-अनजाने इनका सेवन अधिक करे तो उसकी कफ की समस्या बढ़ती चली जाएगी जबकि यही आहार पित्तज प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए नुकसान देह नहीं होगा।

मैं कफज प्रकृति का हूं यदि तीन शाम भोजन में दही का इस्तेमाल लगातार कर लूं तो शरीर की जो दशा हो सकती है वह मेरे संपर्क में रहने वाले ही जानते हैं। इसलिए दही को लेकर बेहद सावधान रहता हूं मगर कभी मित्रों के स्नेह पर या और कोई विकल्प नहीं रहने पर दही सेवन अधिक हो गया तो उसके दुष्परिणाम के निवारण के लिए यथासंभव उपाय करने पड़ते हैं।  

 आपको भी अपने आहार को लेकर सतर्क रहना चाहिए। अपने बनावट को जानना चाहिए। अपनी प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली अपना कर हर पल आनन्दित रहना चाहिए।

क्यों क्या ख्याल है ?
अपना ख्याल रखिए , मुस्कुराते रहिए।




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