वर्ष २०१६- १७-१८ के दौरान मुस्कान मेल श्रृंख्ला में लगातार दैनिक प्रवचन चलता रहा था। मेरे तन मन के प्रयोग का निष्कर्ष इसमें लगातार अभिव्यक्त हो रहा था। क्षिति जल पावक गगन समीर यानि पंच तत्व-पंच महाभूत को माध्यम बना कर जीवन के विभिन्न पक्ष अभिव्यक्त हो रहे थे। इस श्रृंख्ला को फिर से शुरु करने का मन इन दिनों कई बार हुआ पर फिर आलस हावी हो जा रहा है।
खैर.....
१० नवंबर 2024 के बाद सर में चक्कर आने की अनुभूति हुई। १२ और १३ नवंबर को कान में इको आने की अनुभूति पहली बार हुई। बहुत पहले माँ ने कहा था कि उसे भी कानों में झनझनाहट और तरह-तरह की आवाजें सुनाई देने की शिकायत हुई थी और उसने इसका समाधान भोलेनाथ से मांगना शुरु किया। महादेव को जल चढ़ाने के बाद थोड़ा सा जल अरघा से नीचे आया हुआ प्रसाद स्वरूप पी लेती थी और कुछ समय के बाद वह ठीक हो गई।
माँ का ये अनुभव अपने तन की सीमाओं को स्वीकार कर एक आधार ईश्वर को बना इससे निपटने का एक तरीका है।
मेरा अपना तरीका पंच तत्वों को समझना और इसे अपने तन पर प्रयोग कर परिणाम ढूंढना है ताकि इसका लाभ अन्य लोग भी शरीर गतिविधि को समझते हुए उठा सकें।
इस क्रम में दोबारा योग और प्राणायाम का नियमित क्रम १५ नवंबर २०२४ कार्तिक पूर्णिमा से शुरु किया है।
कान- श्रुति- सुनना आकाश तत्व का गुण है।
हमारे शरीर के पंच महाभूत में से
पहली क्षिति-धरती- पृ्थ्वी तत्व है जिसका मुख्य गुण गंध है। लेकिन पृथ्वी में गंध, रस, रूप, स्पर्श और स्वर अन्य चार भी उपस्थित हैं।
दूसरा जल - तत्व का मुख्य गुण रस है। लेकिन इसमें रूप, स्पर्श और स्वर ये तीन भी उपस्थित हैं। जल का अपना गन्ध नहीं है और यह गन्ध पृथ्वी तत्व के कारण है। जल में किसी भी तरह के ठोस पृथ्वी पदार्थ के कारण ही गन्ध रहता है। ये गन्ध प्रिय है या अप्रिय पृथ्वी का है। रस वै ब्रह्म का सूत्र जल तत्व को समझ कर ही कहा गया है। सृजन का सार, सृष्टि का रहस्य और जीवन की उत्पत्ति इसी रस रूपी जल पर टिकी हुई है।
तीसरे तत्व अग्नि का मुख्य गुण रूप है। अग्निमें स्पर्श और स्वर ये दो भी उपस्थित हैं। अग्नि के ही कारण रूप परिवर्तन होता है। जितने भी चमत्कार या अलौकिक अनुभव हैं वह सब अग्नि के रूप बदलने की क्षमता के ही कारण है। अग्नि को वेदों में जो भारत कहा जाता है वह इसके इसी विशिष्ट भार वहन करने की क्षमता के कारण कहा जाता है। वह जो भार को तन रूप में वहन कर सके इसलिए भारत है। ये भारत शब्द कोश की व्याख्या नहीं मेरी अपनी व्याख्या है जो अक्षर और शब्द ब्रह्म पर विचार करते हुए पकड़ में आये हैं। ई = एम सी स्कावयर जो आइन्सटीन का फार्मूला है उसका आधार यही अग्नि- का एक स्वरूप एनर्जी है।
चौथे तत्व वायु का मुख्य गुण स्पर्श है। ये स्पर्श करना सम्भव होता है गति के कारण। वायु यहां से वहाँ चल कर ही पहुँचता है और स्पर्श करता है । छू लेता है। तो ऐसे में वायु का गुण स्पर्श गति पर आधारित है। वायु तत्व में गति के अतिरिक्त स्वर गुण हैं। हवा के चलने से सरसराहट, मरमराहाट या विभिन्न प्रकार की ध्वनियां आकाश गुण के कारण हैं। हवा के चलने से गन्ध पृथ्वी तत्व के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचती है। ताप का प्रसार, ताप चाहे गर्म है या शीतल इसी वायु का आधार ले आगे बढ़ता है।
आकाश तत्व का गुण स्वर है। स्वर यानि ध्वनि। आवाज।
हमारे तन के तीन मुख्य विभाजन हैं।
सबसे ऊपर मस्तक, जिसे गर्दन तक रख लिया जाय।
मध्य में धड़, जिसे गर्दन से लेकर कमर तक मान लिया जाय।
सबसे नीचे अधोअंग जिसे कमर से पैर के तलवे तक रख लिया जाए।
इन तीनों विभाजन में से प्रत्येक में ये पंच महाभूत अलग-अलग स्थान पर केन्द्रित होने चाहिए। जिन्हें ढूढना, पकड़ना और प्रयोग करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
लौटते हैं अपने दोनो कानों में से एक दाहिनमे में १० नवंबर २०२४ से शिकायत शुरु होना। जब कभी किसी को अपने सर में चक्कर आने लगे उसे अपने तन के संकेतों पर ध्यान देना चाहिए। सर में चक्कर आना कोई बीमारी नहीं है। यह बस संकेत है तन का । कहीं कोई समस्या है। इस समस्या की पहचान जो कर ले और समाधान के लिए प्रयोग करे वही योगी है। ऋषि है, द्रष्टा है।
सर में चक्कर के साथ मैं सतर्क होकर ढूढने लगा। इस क्रम में १३ नवंबर २०२४ को अपने कानों में कुछ असामान्य घटित होने की सूचना मिली। इस पर थोड़ा सा ध्यान देने से दाहिने कान में इको यानि अपनी ही आवाज गूंजने की अनुभूति हुई। १४ नवंबर को इसकी पुष्टि हुई। पूरे दिन कान में इको को परखता रहा। जीवन संगिनी अंशु को भी जानकारी दी। वह अपने सहज स्वाभाव के अन्तर्गत हंसने और मजाक उड़ाने लगी।
१५ नवंबर २०२४ को पूर्णिमा का व्रत करते हुए १७ वर्ष तीन महीने बीत कर चौथा महीना शुरु हुआ। योग अभ्यास नियमित तो चल रहा है। इसमें शारीरक अभ्यान अनेक बार अनियमित हो जाता है पर प्राणायम कभी नहीं छूटता क्याोंकि प्राणों का नियमन अब सांसों मे ढल गया है।
इसलिए मैं स्वयं को योगी समझता और मानता हूँ । लेकिन एक बार फिर कार्तिक पूर्णिमा से आसन यानि शारीरिक अभ्यास के साथ प्राणायाम को शुरु करना लाभदायक रहा है।
मेरे कानों में इको आना, झनझनाहट या जो भी समस्या थी वह दूर हो गई। ऐसा इसलिए कि कान यानि अपने तन के अन्दर आकाश तत्व के नियमन के लिए शून्य मुद्रा प्रयोग के साथ दोनों कान की कोशिकाओं, नलिकाओं और अन्य अंग के साथ वायु प्रवाह का प्रयोग मैंने किया। तप्त वायु तन के अनेक दोषों को दूर करती है। विकार को समस्याओं से मुक्त कर पुनः अपने स्वभाविक आकार में ले आती है।
यानि पृथ्वी तत्व रूपी कान के विभिन्न अंग पर प्राण नियमन यानि वायु के प्रवाह को नियन्त्रित कर आन्तरिक रूप से कान की विभिन्न नलिकाओं में संकुचन, विस्तार और कंपन उत्पन्न करने के लिए दबाव डाला गया। वायु प्रवाह को रोका गया। रोकने और दबाव डालने से सहज ही ताप का उदय होता है। यह बढ़ा हुआ ताप कोशिकाओं को गर्म करता है। उन्हें गर्म वायु स्पर्श से सहलाता है, उनकी मालिश करता है और इस तरह कान के अन्दर मौजूद विभिन्न अवयवों की कोशिकाओं को राहत देता है। इस तरह वे अपने मूल आकार में लौटकर पुनः अपने स्वस्थ स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं।
मेरे कान की इको समाप्त हो गई है। कोई झनझनाहट नहीं है।
इति शुभम।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें